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Wednesday, October 9, 2013

लोकतन्त्र की सफलता ?

वास्तविक स्थिति यह है कि आज लाखों घरों में दो वक्त की रोटी के लिए चूल्हा नहीं जलता, बढ़ती गरीबी, असन्तुलन, हिंसा, घृणा, गिरते हुए मानवीय मूल्य और जीवन के हर क्षेत्र में बढता हुआ घोर अनैतिक व्यवहार देश के हर क्षेत्र में हताशा और निराशा की स्थिति पैदा कर रहा है। हमारे देश में योजनाओं की कमी नहीं है, बशर्ते कि उन पर अमल किया जाए।
हमारे देश में गरीबी दूर करने के नाम पर हर साल विभिन्न प्रकार की योजनाओं पर हजारों करोड़ रूपये खर्च किये जाते हैं। लेकिन इनमें से ज्यादा पैसा भ्रष्ट कर्मचारियों अधिकारियों और मंत्रियों की जेबों में चला जाता है।

कई बार तो सोचकर हैरानी होने लग जाती है कि जो शासन प्रशासन अपनी जनता को पानी बिजली स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं करवाता है तो फिर उसके होने न होने का क्या मतलब हो सकता है, शासन करने का मतलब केवल राज करना नहीं होता, बल्कि जनता की सेवा करना होता है। जो इस प्रकार की सेवा न कर सके। वो शासन तन्त्र में दाखिल होने की महत्वकांक्षा ही न रखें।
भारतीय संस्कृति की महिमा का ढिंढोरा पीटने वाले नागरिको के कानों में भारत को ऊँचाईयों पर ले जाने के मन्त्र फूंकने वाले हमारे तथा कथित राजनेताओं में मानव मूल्यों के व्यवहार में ऐसा उल्टा चलन देखना चारित्रिक पतन की चरम सीमा नहीं तो फिर क्या है?
देश में सर्वोच्च पदों को सुसज्जित करने वाले महानुभावों को इस हद तक पहुंचते हुए देखने से ऐसा लगता है कि देश ऐसे सुधार योजनाओं को पीठ दिखाने वाले शासन की अब जरूरत नहीं है भारतीय समाज अब पहले से जटिल भी हो गया है उसका मार्गदर्शन करने के लिए विकसित विवेक की जरूरत होती है। इस प्रकार के माहौल में भारत का नेतृत्व करने की तमन्ना रखने वाले उम्मीदवारों को अपनी जिम्मेदारी के हिसाब से शैक्षिक योग्यता रखना अति आवश्यक है सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में चयन प्रक्रिया प्रतियोगिता से संचालित हो रही है। अत: इसमें शैक्षिक योग्यता बुनियादी है। केवल राजनीति में ही ऐसे लोग होते है जो बिना किसी शैक्षिक योग्यता के अपनी लाठी के बल बूते पर ही सर्वोच्च पद पर पहुंच जाते है। यह देश के लिए अपराध है नागरिकों के साथ घोर अन्याय है।
अत: उम्मीदवारों का चयन भी शैक्षिक योग्यता पर होना चाहिए। इस के साथ-साथ व्यवहारिक तजुरबे के आधार पर ही चयन किया जाना चाहिए समाज को मानवीय मूल्यों के मुताबिक सुचारू रूप से चलने से ही प्रशासन की असली धारणा बनती है। तरह-तरह के स्वभाव तौर तरीके रीति रिवाज आचार विचार पेशे जाति वर्ग सम्प्रदाय संस्कृति आदि के बीच तालमेल बनाए रखे बिना समाज का सार्थक अस्तित्व नामुमकिन है।
पारस्परिक सद्भाव समन्वयं और सहयोग के लिए कानून बनाने और उन्हें कायम रखने का इन्तजाम बनाने में ही प्रशासन की सार्थकता निहित है। सरसरी नजर में जहां-जहां शासन व प्रशासन की पकड़ है वहां-वहां भ्रष्टाचार व्याप्त है। हमारे यहां पांच से ज्यादा जनप्रतिनिधि अपराधिक रिकार्ड के मिल जाए ये अपराधिक बाहुबली हमारे चुनावों में विजयी होते है। हमारे यहां सजायाफ्ता भी चुनाव लड़ते है और सरेआम जीतते है। इस प्रकार नेताओं, अफसरों और अपराधियों का एक ऐसा त्रिगुट बन गया है जिसने हमारे देश की जनतान्त्रिक व्यवस्था का अपहरण सा कर लिया है। प्रजातन्त्र अराजक बन जाए इससे पहले जनता को अपने अधिकरों के प्रति और कर्तव्यों के प्रति सजग हो जाना चाहिए। किसी भी देश में लोकतन्त्र की सफलता जनता की जागरूकता पर ही निर्भर करती है। सरकारी नीतियों के कारण हताश शिक्षित बेरोजगारों की फौज पैदा हो रही है।
अनाज का सही मूल्य नहीं मिलने के कारण किसान आत्म हत्याएं कर रहे है, डिग्री डिप्लोमाधार सही रोजगार न मिलने के कारण चोरी, लूटपाट में लगे है, रोजगार घट रहे है, लेकिन सरकार फिर भी करोड़ो रोजगार पैदा की घोषणा कर रही है।
जहां एक ओर सांसदो ऑफिसरों मंत्रियों के वेतन बढ रहे है, जिसमें समाज के कुछ वर्गो में चमक दमक बढ रही हैं। इसका असर आम लोगों की मानसिकता में ईष्र्या की उत्तेजना भर रहा है दूसरी तरफ दूरदर्शन पर जो भी विज्ञापन आते है वो विलास और शोभा की लोकप्रियता बढाते है तथा गरीबों की हताशा और इच्छाओं को उकसाते है।

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