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Monday, May 4, 2020

अमर किसान

मुबारकों तुमको तुम्हारा स्वर्ग, जन्नत।
मैंने तो रेत से रेत मिलाई, बस रेत से प्रीत लगाई।

ना घनघोर काली रातों में आत्मा घबराई।
ना सर्दी की सिकुड़न, ना गर्मी की तपन शरीर थका पाई।1

मेरे पांव तले है सांप और बिच्छू है कांटों की भरमार।
तकदीर बताने वाली लकीरें है हजार, पर निकली सब बेकार।

मेरे लिए तो मेरा शरीर और मेरी आत्मा मेरे खेत की रेत है।
मैंने तो बस रेत से रेत मिलाई, बस रेत से प्रीत लगाई।

जिस पक्षी और परिंदे ने मुझे गीत सुनाई
मैंने तो उसकी भी किमत चुकाई।

कहते है भगवान तू, पर किसी ने इंसान बताने की हिम्मत नहीं दिखाई।
मैंने तो बस रेत से रेत मिलाई, बस रेत से प्रीत लगाई।

अंग्रेजों का कागत दिखाकर, मेरा स्वर्ग उजाड़ जाते हो।
सिमेन्ट का जंगल बसाते हो, फिर भी इंसान कहलाते हो।

जिस मिट्टी में फसल उगाई, उसकी प्यास मैने अपने पसीने से बुझाई।
इसलिए लिए मेरी जात शुद्र बताई और मुझको मेरी औकात दिखाई।

मुबारकों तुमको तुम्हारा स्वर्ग, जन्नत।
मेरे लिए तो मेरा शरीर और मेरी आत्मा मेरे खेत की रेत है।
मैंने तो रेत से रेत मिलाई, बस रेत से प्रीत लगाई।

Thursday, April 16, 2020

मैं किसान हूंँ

मैं किसान हूंँ !
अर्थव्यवस्था क्यिा मजबुत होव ई बातगों म्हानै बैरो कोनी, आ बात बामण-बाणियां (विद्वान-व्यापारी) नै पूछो। 

मैं किसान हूंँ !

जै सगळ देसगा 12 घण्टा खेत में म्है काम कराद्य (कणक/चिणा कटाद्य) तो 12 महिना भूख कोनी मरणद्यूं। 

मैं किसान हूंँ !

कढ्या म्है आपी लैस्यूं और मण्डीयां में पहूंचाद्यूंगा फैर चाहे म्हनैं चाहे लूट लईयों।
मैं किसान हूंँ !

Thursday, November 21, 2019

अवैध नशा व्यावारी के जाल में फसा पुरा क्षेत्र

अवैध नशा व्यावारी  के जाल में फसा पुरा क्षेत्र


बो पड्यों थानों, बा पड्ी तहसील, म्हारों कि बिगाड्ओं तो बिगाड्दयों एक बारी म्हे संजीव पटावरी नै ही कुट दियों। थे सामान ही कै हो - जगदीश घोटिया घर में अवैध शराब विक्रेता

हे मैह तो इंयाई बैचागा, थाना में पिसा द्याहा। - प्रदिप घोटिया परचून में दूकान में शराब विक्रेता

 नोहर। नशे के नशे में जनता व पैसों का प्रशासन यह सब आलम पूरे जिले में देखने को मिलता है पर बात आज एक पंचायत की। पंचायत समिति की ग्राम पंचायत पिचकरांई में  6 आर.पी.एम. चक, 7-9 चक, 16-17 चक, 1 चक (शिवपुरा) सहित कई ढाणियां कई  सम्मलित है। 6 आर.पी.एम. में आबकारी विभाग द्वारा अधिकृत शराब की दुकान है। जबकि गांव पिचकरांई में तीन दसकों से अवैध शराब खुल्ले आम बिक्री की जाती आ रही हैं। शराब माफियों को प्रशासन का बिल्कुल भी खोप नहीं है। गांव पिचकरांई में अवैध शराब (नशे) की बिक्री दिनों दिन बढ़ती ही जा रहीं है। (चर्चा में है कि अब ये लोग चिट्टा के नशा भी रखते है) वर्तमान में नशा विक्रेता अपने घरों के साथ-साथ अपनी परचुन की दुकान में भी खुल्ले आम शराब की बिक्री कर रहे। परचुन की दुकान की आड में ये नशा विक्रेता नन्हें बच्चों को भी नशे का आदि बना रहे। बियर बच्चों को जौ का पानी व ठण्डा बोलकर बिक्री करते है। बच्चों को बोलते है पी कर देखों बहुत ठाठ आयेगा। ये नशा विक्रेता होम डिलिवरी भी देते है। जो अपने घर वालों के भय की वजह के इनके घर व दुकान पर नहीं आ सकते उनके आॅर्डर मोबाईल फोन, फेसबुक व वाट्सएप लेकर पहुंचाते है। इन अवैध शराब विक्रेताओं की सूचि आबकारी विभाग के पास है परन्तु सुविधा शुल्क लेकर इनके इस कृत्य में सहयोग करते है। विभाग को शिकायत करने में बहुत चालाकी से शिकायत खारीज कर देता है। इन शराब माफियाओं के खिलाफ शिकायत होने पर आबकारी विभाग इन शराब माफियाओं से सम्पर्क करता है, और उन्हें बोलता है। आपके विरूध शिकायत है हमने जवाब तैयार कर लिया आप अपने गांव के सरपंच से लिखवाकर ले आओ। कि गांव में कोई अवैध शराब बिक्री नहीं हो रहीं है।  चन्द पैसों के लालच में समाज विरोधी कार्य कें सरपंच भी लिप्त हो जाता है। जैसे एक शिकायत पर गांव का सरपंच इन शराब माफियों के पक्ष में खड़ा हो गया और आबकारी विभाग को लिखित में दे देता है कि गांव में कोई अवैध शराब नहीं बेची जा रहीं है।  केवल 6 आर.पी.एम.  में अधिकृत ठेके पर ही बिक्री होती है। आबकारी विभाग के साथ-साथ इन शराब माफियों का मोहरा बनकर पुरे समाज को नशे की और धकेलने में इनको सहयोगी एक जनप्रतिनिधि भी हो जाता है। ऐसे जनप्रतिनिधि स्वयं का महत्व भी नहीं जानते कि आपके द्वारा लिखी गई दो लाईन समाज  को नशे और अपराध की और धक्केल रहीं है। सरपंच (पंच) विधायक, सांसद एक जन प्रतिनिधि न होकर इन शराब माफियों का प्रतिनिधि हो जाता है। इनके साथ जिले का पुरा प्रशासन भी तमास बिन बन जाता है और इन शराब माफियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर सकता।

Thursday, November 28, 2013

युवाओं को मौका

जिस वृक्ष के साये में एक पल के लिए आराम कर लेते है तो अगर कोई उस वृक्ष की टहनी भी काटे तो दर्द होता है? लेकिन न जाने ये अहसास कहां खो गया आज हर रोज एक बाप के अरमानों की हत्या एक बेटी कर रही है। जिस पिता ने न जाने कितनी रातें जागते हुए काट दी ताकि उसकी बेटी आराम से सोये, कितने आँसू अपनी लाडली पर कुर्बान किये ताकि उसकी बेटी सदैव हंसती रहे। लेकिन कहा गया वो प्यार जो एक बाप ने अपने बेटी के लिए कुर्बान कर दिया। आज हर तरफ एक ही स्वर सुनाई देता है। कि हम बेटियों को क्यों नहीं चाहते? क्यों बेटियों की भ्रुण हत्या हो रही है? जब वहीं बेटी एक बाप की उम्मीद की हत्या कर देती है तो समाज क्यों उस बाप के साथ नहीं? आज इस युग में जब हर तरफ नारी के अधिकार की बात होती है। तो क्या एक बाप की इंज्जत का कोई मोल नहीं? हम कैसे भूल जाते है। कि एक बाप ने कितने अरमानों से एक बेटी को पाला है? क्या यहीं प्यार है? जिसे हम प्यार समझ कर अपना सब कुछ दाव पर लगा देते है क्या वास्तव में वो प्यार है। युवाओं को सोचना होगा। आज के युवाओं की सोच इतनी तुछ कैसे हो गई कि अपनी चंद ख्वाहिसों के लिये अपने पूरे परिवार का गला घोट दें। भारत एक ऐसा देश है जो सदियों से पैसे के लिए नहीं वर्न अपनी इज्जत और संस्कारों के लिए जाना जाता रहा है। फिर अचानक आज क्या हो गया। कि हमारे बच्चे आज इतने गिर गये की वो पिढियों की ईज्जत को पल भर मिटा दे। कैसी आजादी है ये? कैसी शिक्षा? प्यार शब्द का अर्थ ही बदल दिया। एक माँ जो 20 वर्ष तक अपने खून से पालती है। उसके एक आँसू के बदलें खून बहा देती है। क्या वो प्यार नहीं है? एक बाप जिसके लिये सारे जग से लड़ जाता है। जिसकी एक हंसी के लिए जीवन भर दर्द सहकर पालता है क्या वो प्यार नहीं है? अगर ये प्यार नहीं है तो चंद पलों में कैसे कोई प्यार कर सकता है। कैसे कोई प्यार को समझ सकता है? प्यार शब्द की गहराई इतनी विराट है कि सागर भी शर्माजाएं तो चंद लम्हें जो सिर्फ हवस मात्र है प्यार कैसे कह सकते है। अगर हम किसी से प्यार करते है तो कैसे उसे दु:ख दे सकते है कैसे किसी प्यारे साथी को दुनियां की नजरों से गिरा सकते है। अगर ऐसा कर रहे है तो वो प्यार नहीं हो सकता है। ये तो सिर्फ छलावा मात्र है। प्यार का नाम ही देना है। इतने मतलबी कैसे हो सकते है हम कि प्यार के नाम पर एक बाप की इज्जत छन ले। एक परिवार की गरिमा ही खत्म कर दें। एक भाई का सम्मान खो दे? ये प्यार नहीं हो सकता जब कोई आप से अपनी पसन्द का खिलोना छिन्न ले तो कितना बुरा लगता है। फिर एक बाप से बेटी और माँ से बेटा कैसे छीन सकते है आप। दर्द होता है पर कहां जाए। कौन जिम्मेदार है। क्या हम सब। हाँ कुछ न कुछ हम सब इसके जिम्मेदार है हमारी परम्पराएं हमारी विरासत जो सदियों से चली आ रही थी। उनका विघटन आज के हालात का जिम्मेदार है। सबसे बड़ा कारण कोई नजर आता है तो वो है संयुक्त परिवार का खातमा। आज सब अपनी-अपनी खुशियों में सिमंट कर रह गये है। न जाने क्यों बुजुर्ग बोझ लगने लगे है। शादी के तुरन्त बाद अलग होना परम कर्तव्य लगने लगा है। एक बेटी को जितनी नजदीकी एक दादी से हो सकती है उतनी माँ से नहीं। एक पौता अपने दादा को जो बता सकता है एक बाप को नहीं। इन बुर्जुगों से दूरियां ही युवा भटकाव का मूल कारण नजर आता है। अभी वक्त है अगर कोई बच्चा भटक गया तो उसे पराया समझ कर उस पर हंसना बंद करें। कल आपका भी हो सकता है। सोचने का वक्त है। अपनी परम्पराओं को फिर से जिंदा करना होगा। हमें फिर से युवाओं को मौका देना होगा कि वो दादी के आँचल में बैठ कर कहानियां सुने। हम बात परम्पराओं की करते है पर आज के बच्चों को उनकी भनक तक नहीं होने देते जो शिक्षा उन्हें हमारे बुर्जग दे सकते है। हम उन बुजुर्गो का साया भी इन से दूर रखना चाहते है। फिर वो बच्चे अकेले कैसे गुनाहगार हो सकते है। सोचा?
आज हमारी बढती भौतिक अभिलासा भी काफी हद तक इस समस्या की जिम्मेदार लग रही है। आज हर कोई पैसे के पीछे दौड़ रहा है। किसी के पास वक्त ही नहीं है। कितने बाप है जो अपने बच्चों को दिन में एक घण्टे का वक्त भी देते है। कितने परिवार है जो अपनी बच्चियों की ख्वाहिसों को समझते है। शायद नहीं। जब बच्चों को माँ-बाप का प्यार चाहियें तो हम उन्हें कम्प्यूटर थमा देते है। वो कम्प्यूटर ही उनका हम दर्द बन जाता है। जब मशीन किसी की हम दर्द हो जाये तो बाप के दर्द को कौन समझे। हमें इस अंधी दौड़ को रोकना होगा। आज सिर्फ युवाओं को दोष देना वाजिब नहीं लगता समाज भी इसका गुनहगार है। आज हर बाप का फर्ज है कि अपनी बेटी को प्यार दे ना कि कम्प्यूटर क्योंकि बेटी के शरीर में भी दिल है मशीन नहीं? पैसे देकर अपना फर्ज पूरा समझने की भूल हम कर रहे है। जो कि सबसे ज्यादा हानिकारक है। अगर बाप को बेटी चाहिये तो उसे वक्त दे उसे बताये कि हम जिस दुनियां में जिते है वहां मशीन से ज्यादा अहम इंसान है बेटी को बोझ समझना बंद करें उसे भी बेटे की तरह प्यार दे ताकि किसी पराये के प्यार के लिए अपने बाप के अरमनों की हत्या ना करनी पड़े?

जीवन भर घूस देने को मजबूर


आजादी से पहले ब्रिटिश सरकार जिस तरह मनमाने ढंग से देश का और देश वासियों का दीवाला निकाल रही थी, उसी समय हमारे देश में बुद्धिमानों ने जनता की भावनाओं के उत्पीडऩ का तरीका खोज लिया था, और वो ही बुद्धिजीवी लोग आजादी के बाद सत्ता में आए, उन्ही सूत्रों, तरीकों के आधार पर अपनी निजी स्वायतता को मनमाना विस्तार और स्वरूप दिया। अत: आजादी के साथ भ्रष्टराचार को भी आजादी मिल गई।
राजा और रंक का भाव गहनतम हो गया, शोषण बढता चला गया। शोषण में काम के बदले दाम की रिवाज काठ की छुरी बन गई। स्वार्थ सिद्धि का विकास सत्ता के गलियारे से चलता हुआ आम जनता की देहरी पर आ टिका है।
सब अपने-अपने सुख तलाशने में लगे। सबसे पहले भोक्ता बनने का ही जुगाड़ कर रहे है। जब से चुनावों में साम, दाम, दण्ड भेद की नीति का प्रवेश हुआ उसी दिन से नीति आदर्श, ईमानदारी और विश्वास के साथ खिलवाड़ शुरु हो गया ।
उस समय कम लोग दोषी थे, आज लगभग लोग दोषी है, चुनाव में जिन लोगों ने मदद की वो दलाल भी बने, लेकिन वे लोग मालामाल भी बने यहां पर सीधा सादा कार्यकर्ता पिट गया, न वह दलाल बन सका और न मालामाल बन सका।
नेताओं के दरबार लगने लगे तो बढते ही गये।
भ्रष्टाचार की धारा का प्रवाह इतना तेज है कि इससे कोई भी नौनिहाल जवान बूढा अछूता नहीं है। इससे तो लाश भी अछूती नहीं है।
घूसखोरी का सूचकांक बच्चे के जन्म से शुरु हो जाता है जवानी बुढापे से होते हुए मृत्यु तक चला जाता है।
एक आम भारतीय नागरिक को बच्चे के जन्म-प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए कार्यालय के क्लर्क को घूस देनी पड़ती है। इजिनियरिंग और मेडिकल में दाखिले के लिए घूस देनी पड़ती है। छोटी से बड़ी नौकरी तक रिश्वत देनी आम बात है।
ड्राईविंग लाइसेंस बनवाने, नवीनीकरण करवाने, बिजली पानी, रेल आरक्षण पासपोर्ट, सिनेमा टिकट, बस टिकट आदि आम सुविधाओं के लिए भी घूस का प्रचलन है। स्वास्थ्य सेवाओं में डाक्टर से लेकर आम सुविधाओं के लिए भी घूस का प्रचलन है। स्वास्थ्य सेवाओं में डाक्टर से लेकर वार्डबाय नर्स और सफाई कर्मचारी तक मरीज को आर्थिक रुप से बेदम करने पर आमादा रहते है। एफ.आई.आर. दर्ज कराने थानों में फरियादी भी अपराधी बना दिया जाता है और उसकी जेब खंगाल ली जाती है, पता नहीं चलता।
व्यवस्था शुरु करनी है तो घूस देनी पड़ती है आयकर देने पर्यावरण जांच कराने आदि में भी घूसखोरी है - अखबार से जुड़े संवाददाता भी पार्टी शराब या सीधे घूस लेने के आरोपों के दायरे में आ चुके है।
जिन्दगी भर घूस देने के लिए मजबूर आदमी को मरने के बाद भी चैन नहीं मिलता उसके अंतिम संस्कार तक भी घूसखोरी का प्रचलन है।
अपनी खुशी के लिए किसी को किसी भी हद तक कष्ट देना जब लोगों की आदत बन जाए तो किसी के खुशहाल रहने का प्रश्र ही कहा रह जाता है। ऐसे लोगों को भ्रष्टाचार अनैतिक नहीं लगता उनके लिए तो भ्रष्टाचार सुविधा शुल्क के रुप में नैतिक होता है। कहने को तो वो लोग भी समाजिक प्राणी ही है। सेवक है, लेकिन उनका भी अपना परिवार है, बच्चे हैं, जिनके बड़े-बड़े सपने है, उन्हें पूरा करना उनका नैतिक कर्तव्य है अथवा नहीं? यही आड़ लेकर वे भ्रष्टाचार को नैतिक आवश्यकता का जामा पहना रहे है। सरकारी अद्र्धसरकारी कार्यालयों में पदस्थ लोगों के लिए ऊपरी आय उनकी कार्य ऊर्जा का रुप ले चुकी है। इस ऊर्जा के बगैर तो वे हिलडुल भी नहीं सकते। उनके मूंह से बोल निकलने इशारे करने के भी दाम लगते है। मूंह बोले और एक मुश्त नगद दाम लगते है। इस बात का ज्ञान आम जनता को भी है और जनता भी ऊर्जा अपने साथ लेकर ही अब कार्यालयों में जाने लगी है।
इस ऊर्जा की आवश्यकता राष्ट्र निर्माता शिक्षक को भी महसूस हुई अत: उसने भी ट्यूशन को अध्यापन काल का आवश्यक अंग बना दिया। यही कारण रहा कि आजादी के बाद आज तक बहुत से डाक्टर बने इंजीनियर बने, व्याख्याता बने, लेकिन राष्ट्रनिर्माता एक भी नहीं बना। हमारे देश के राजनैतिक दलों ने भारत के अन्नदाता किसान को भ्रष्टाचार की शिष्टता, वोट बैंक पक्का करने के लिए कर्जमाफ कर कर के दिखाई है। इसी कारण आज किसान स्वर भी लालच अथवा प्राण भय के ख्वाब में बेसुरे होते जा रहे हैं।
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि किसी देश की अस्मिता का निर्धारण उसमें रहने वाले लोगों के आचार, विचार, व्यवहार एवमï समानता व न्याय के मानदण्डों से और सत्ताशासकों की चारित्रिक श्रेष्ठताओं के आधार पर होता है।
लेकिन जब चरित्र भष्ट्राचार के बीज बो रहा हो तो राष्ट्र निर्माताओं की फसल का सपना देखना वहम ही है।
नजर मारिये -
1. आज कितने माँ-बाप अपने बच्चों को सत्य, निष्ठा, सेवा और त्याग का पाठ पढा रहे है।
2. कितने माँ-बाप अपने बच्चों को समाजोयोगी कार्य करने का पाठ पढा रहे है।
3. कितने माँ-बाप अपने बच्चों को महापुरुषों के जीवन की सीख दे रहे है?
लोग कहीं न कहीं सत्य का मार्ग भूल गये हे भारतवादी राष्ट्रवादियों की तलाश में यह देश सिसक रहा है।
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Wednesday, October 9, 2013

लोकतन्त्र की सफलता ?

वास्तविक स्थिति यह है कि आज लाखों घरों में दो वक्त की रोटी के लिए चूल्हा नहीं जलता, बढ़ती गरीबी, असन्तुलन, हिंसा, घृणा, गिरते हुए मानवीय मूल्य और जीवन के हर क्षेत्र में बढता हुआ घोर अनैतिक व्यवहार देश के हर क्षेत्र में हताशा और निराशा की स्थिति पैदा कर रहा है। हमारे देश में योजनाओं की कमी नहीं है, बशर्ते कि उन पर अमल किया जाए।
हमारे देश में गरीबी दूर करने के नाम पर हर साल विभिन्न प्रकार की योजनाओं पर हजारों करोड़ रूपये खर्च किये जाते हैं। लेकिन इनमें से ज्यादा पैसा भ्रष्ट कर्मचारियों अधिकारियों और मंत्रियों की जेबों में चला जाता है।

राजनैतिक सत्ताधारी पार्टियों के इशारे पर नाचना बन्द करें प्रशासनिक सेवा

भारतीय प्रशानिक सेवा के अधिकारी ही देश को चलाते है। आई.ए.एस. अधिकारियों की प्रशासनिक सेवा ही प्रशासन को चलाती है और भारतीय प्रशासनिक सेवा ही देश के प्रशासन पर शीर्ष है।
इसने उस इण्डियन सिविल सर्विस की जगह ली है जो भारत पर राज करने वाले अंग्रेजों के हाथों का एक औजार थी। आजादी के बाद इस व्यवस्था पर गम्भीरता से विचार किया जा रहा था कि अपने देश में एक अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा होनी चाहिए या नही। राज्य सरकारों की सोच थी कि प्रशासन चलाने का काम क्षेत्र के लोग ही करें।

Friday, September 27, 2013

कौंधते सवाल?

जब कभी भी हम पीछे मुड़कर देखते है तो हम भौचंके रह जाते हैं। जब हम आजाद हुये उस वक्त हमारे रुपए की कीमत एक डालर थी। (1947, एक डालर = एक रुपया ) ओर आज 69 रुपए में एक डालर, काफी प्रगति की हैं? चारों ओर विकास का शोर हैं, हर तरफ देश की जय जयकार के नारे लग रहे हंै। लेकिन हमारा विकास हुआ? कितना? चीन हम से बाद में आजाद हुआ, लेकिन आज कहा हैं? हम हर तरह से सम्पन्न थे, फिर भी आज गरीब क्यों? बहुत सारे सवाल कौंधते हैं, लेकिन जो सवाल सबसे ज्यादा परेशान करता हैं, वह है हमारी देश भक्ति पर। आज हिन्दुस्तान का हर आदमी देश से पहले अपने धर्म, अपनी जाति और अपने राज्य को समझता हैं, राष्ट्र कहीं खोता जा रहा है। कोई भी देश तब-तक विकास नहीं कर सकता, जब तक अपने आप पर विश्वास नहीं होता। क्या हम में है विश्वास? क्या हम में वो ताकत है, जो कठोर फैसला ले सकें? कहीं ना कहीं हमें सोचना होगा कि क्यों नहीं हमारी सरकार में वो क्षमता जो कठोर फैसले ले सके। इसका जिम्मेदार कौन है? आज हम हर गलती का जिम्मेदार सरकार को बताते हैं, और सरकार पाकिस्तान को। दोस्तों, जब भी कोई नागरिक अपने वजूद को खोकर कोई कार्य करता है, उसका असर उस आदमी पर नहीं बल्कि उस समाज व उस राष्ट्र पर पड़ता है, यहीं सोच हमें पैदा करनी होगी। बात-बात पर हर गलती की वजह दूसरे पर मढऩा हमारी आदत हो गई हैं। दोस्तों, देश सरकार का नहीं है, देश हर देश वासी का हंै और हर देश वासी ही सरकार हैं। यह हमें समझना होगा, आज हम अपने अधिकारों के प्रति इतने सजग हैं कि उन में थोड़ा सा भी खलल पड़े तो हम आसमान सर पर उठा लेते है। लेकिन कभी अपने कर्तव्यों का पालन करने की नहीं सोचते, जिस दिन देश का हर नागरिक अपने अधिकारों की तरह कर्तव्यों का पालन करने लग जायेगा उस दिन किसी पाकिस्तान या चीन की हिम्मत नहीं की हमारी तरफ आँख उठाकर देख सके। देश प्रगति तभी कर सकता है जब देश का हर नागरिक अपने-अपने क्षेत्र में देश भक्ति पैदा करें। भारत में आज भी बहुत लोग हैं जो इस देश के सच्चे नागरिक का कर्तव्य निभाते हैं। ओर हर भारत वासी का फर्ज बनता है उन बहादुरों का साथ दे।
जब एक गरीब घर में पैदा हुआ जी.आर. खैरनार अपने दम पर दाउद इब्राहिम की सत्ता हिला सकता है, एक अशोक खेमका पूरे सम्राज्य को टक्कर दे सकता है, दुर्गा शक्ति- पंजक चौधरी जैसे युवा सियासत से टकरा सकते है। तो क्या 125 करोड़ हिन्दुस्तानी दुनियां को नहीं हिला सकते? कहने और करने में फर्क बहुत होता हैं। हम कर नहीं सकते? पर करने वाले उन बहादुरों का सलाम तो कर सकते है। देश के उन बहादुरों को जो कि कर्तव्य पर 'जिन्दा- शहीदÓ हो गये उनको मेरा सलाम।
कहा खो गई है हमारी वतन परस्ती? कहां गुम हो गये मेरे देश के जाबांज? हर तरफ सिर्फ वोट घुमते है। इंसानों का कहीं नामोनिशान नहीं दिखता मेरे देश में न जाने कितने अब्दुल हमीद (परमवीर चक्र विजेता) पाकिस्तान के घर में घुस कर उनका कलेजा चीरने की क्षमता रखते है। लेकिन अफसोस, चन्द गद्दारों की लालसा ने भाई से भाई को लड़ा दिया आज देश सबसे बड़ा दुश्मन कोई है, तो वो है हम खुद। दिल्ली में दामिनी का बलात्कार हुआ हम कितने बनावटी क्रोध में चीखे लेकिन कितनी देर? बलात्कारी पाकिस्तानी थे या चाईनीज? क्या उसके बाद बलात्कार नहीं हुआ? गुनाहगार वो हैवान ही नहीं है हम भी इस गुनाह के भागीदार हैं। क्यों नहीं हम जज्बा पैदा करे कि किसी की हिम्मत ही ना हो किसी बहिन की तरफ देखने की। हम सिर्फ शोर मचाने के आदि हो गये हैं। हम भीड़ बनकर रह गये है। कभी कोई भीड़ किसी का फैसला नहीं कर सकती , हमें एक ऐसा कारवा बनाना होगा जो विचारों से दृढ़ हो और नैतिक बल से परिपूर्ण।
हिन्दुस्तान का विकास चाहते हो तो हमें लोहे के जिगर वाले युवा चाहिये। जो कि एक जोश के साथ आगे बढ़े ना कि एक की आवारा भीड़, जो कि देश की सम्पत्ति जलाकर अपने को देश भक्त कहे।
देश किसी की बपोती नहीं है देश हमारा है। इसका विकास सरकारों की घोषणाओं से नहीं हो सकता जो अपने वोट के न जाने कितने लालच हमें देते हैं। दोस्तों अगर देश का भला चाहते हो तो खुद्दारी से जीने की आदत डालों न कि भीख में जीते रहे।
सदा दूसरे की तरफ मदद के लिए ताकना कायरों का काम हैं जिन्दा दिल अपना रास्ता खुद चुनते है चाहे कितनी भी कठिनाई आये गैरत से कमाई गई रोटी जो खुशबू महसूस होती है वो भीख में मिली मिठाई में कहा। ये हिम्मत और हौंसला तुम्हें तकलीफ दे सकता है। लेकिन कभी भी हरा नहीं सकता। देश का सवाल समझते हो तो उठो वो जलजला पैदा करो कि देश के गद्दार कांप उठे। दोस्तों अभी वक्त है जमीन पर गिरे हो खड़े हो जाओं। लेकिन जिस दिन अपनी नजरों में गिर जाओंगें सम्भलना नामुमकिन होगा।

उठो और उस ताकत को जगाओ

चारों तरफ एक अजीब सा सन्नाटा हैं। हर क्षेत्र अपने आप में खातमें की ओर बढ़ रहा है। देश की अर्थ व्यवस्था लहु-लुहान है। ले दे कर एक आध्यात्म ही था। जिसकी बदौलत हम कुछ अन्दर से शान्त थे, लेकिन वो विश्वास भी टूट गया। कितने रसातल में चलें गये हम, सोचकर मन व्यथित हो जाता है। एक आवारा व शराबी अगर दुश्कर्म करें तो विश्वास होता है। क्योंकि वो हैवान था। पर जब कोई "भगवान" ये कर्म करता है तो आत्मा अन्दर तक टुट जाती है। कहां जाएं हम? कहां सुरक्षित है हमारी बेटी? दिल तडफ़ उठता है क्या यहीं वो भारत है जहां विवेकानन्द जैसे संत ओर गांधी जैसे नेता हुए? यह अंधकार इतना गहरा गया है सफेद भी काला लगने लग गया है। दोष इन भगवानों का नहीं है। दोष हमारी बुद्धि का है हम इतने अंध भक्त हो गये है कि अमृत को विष और विष को अमृत मानने लगे है। दोस्तों ये वक्त सिर्फ सोचने का नहीं है। अगर हम सिर्फ सोचते रहे। तो ये हिन्दुस्तान शायद कुछ वक्त का मेहमान है? आज हमारे साथ विश्वास घात की इंतहा हो गई है। अगर इस धोखे का बदला नहीं लिया तो हम उस रास्तें की धुल
से भी गये गुजरे है जो ठोकर मारने पर सिर पर चढ़ जाती है। पाप ओर जुल्म अपने चरम पर है गीता में कहा है जब भी पाप बढ़ता हैं उसका अंत करने भगवान आता हैं। लेकिन अब हम भगवान का इंतजार नहीं कर सकते? भगवान नहीं हमें इंसान बनना होगा। अगर हम इंसान भी बन गये तो ये पाप की काली रात ज्यादा लम्बी नहीं हो सकती सवैरा निश्चित है लेकिन सवैरे से पहले का अंधकार ज्यादा गहरा होता है, और आज हम उसी दौर से गुजर रहे है। साथियों उठो और अपने अंदर के इसान को जगाओं, उसे बताओं की हम भारतवासी है अंधेरा हमें डरा नहीं सकता, पाप हमें मिटा नहीं सकता, उठो और उस ताकत को जगाओं को हमारे अन्दर सदियों से है। जिसे कोई आततायी मिठा नहीं सका। पापियों से कहदो की हम मुर्ख नहीं है लेकिन हमें प्यार और शांति अपने खुन से विरासत में मिली है। हमारे प्यार को कमजोरी मत समझों, क्योंकि हम वो आग है जो एक बार अगर जल गई तो जुल्म ओर पाप का जंगल नष्ट होने में देर नहीं लगेगी। धोखा हमारे खुन में नहीं है लेकिन हम जिसे राजा बना सकते है उसका ताज उतारने में देर नहीं करेंगे।

कोशिश कभी नाकाम नहीं होती, मेहनत से ही रास्ते सिमट जाएगें
मंजिल ना भी मिले तो क्या पर मंजिल के फासलें घट जाएगें।

हम सदा आपके साथ है ओर इस इंडिया डिस्पले के माध्यम से सदा आपके साथ रहने का प्रयास करेंगे।
- Ramesh Jhorar

Thursday, September 26, 2013

मजबूरी का फायदा हर कोई उठाता है

 भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की आधी से अधिक आबादी दूरदराज के गांवों खेतों और ढांणियों में निवास करती है। कहने को तो सरकार से लेकर बुद्धिजीवी व आम आदमी किसान को अन्नदाता कहते हैं, लेकिन असल में उसकी घोर उपेक्षा असहनीय स्त्तर पर पहुंच गई हैं, इसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ेगा। उन तक महत्वपूर्ण खेती-बाड़ी व अन्य तमाम विषयों की नवीनतम जानकारियां देने का जिम्मा सूचना और प्रसारण तथा जनसम्पर्क के माध्यमों को सौंपा गया है। एक तरफ हम विश्व स्तरीय प्रतिस्पर्धा की बात करते है दूसरी तरफ?
भारत में कृषि लगातार पिछड़ती ही जा रही है। क्योंकि भारत में कृषि को उद्योग का दर्जा नहीं मिला है। परन्तु नाचने-गाने वाले बॉलीवुड को उद्योग का दर्जा मिला हुआ है, यह उद्योग इतना विकसीत हो चुका है कि अय्यास व विलासी जीवन, देह व्यापार, माफिया, सट्टेबाज, आंतकी, डॉन, नशे के व्यापारी पूरी दूनियां में अपनी चमक-धमक को शान से दिखा रहे है। प्रतियोगी परीक्षाओं में जिस्म-2 में काम करने वाले अभिनेता व अभिनेत्री कौन है? पुछा जाता है। भारतीय सीमा में घुसपैठ करते पकड़े गये तीन चीनी घुसपैठियों ने इसका मजाक उड़ाया और कहा कि फिल्मों में भारत की समृद्धि देख भारत आना चाहते थे। सच्चाई यह है कि कृषि को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चंगुल में फसाया जा रहा। कृषि विशेषज्ञ कई बार एक नए रसायन के बाजार में आने का नाम लेते हैं। साथ में यह बताते हैं कि बाजार में उपलब्ध हो तो इसका प्रयोग करें। इसकी मात्रा थोड़ी-सी डालना क्यांकि यह महंगा है। आजकल कृषि सलाहकार कम्पनियों के सैल्समेन बन गये है। नकली व गुणवत्ताहीन पेस्टीसाईड-बीज खुल्ले आम बेचे जा रहे है। सरकार ने लीफकर्ल वायरस से मुक्त किस्मों को ही बाजार में जारी करने का निर्देश दिया है परन्तु कृषि सलाहकार सिफारिश कई किस्मों के बीजों की कर देते है और किसान भ्रम में रह जाते है।
कृषि उत्पादों का मूल्य भी उचित नहीं मिलता ।
उदाहरण - गेहूं उत्पादन करना क्या अपराध है? आज बाजार में चाय का कप 8 से 10 रूपये मिलता है। वह भी आदमी को बीस मिनट तक ही ऊर्जा या ताजगी दे पाता है (या यह भी एक भ्रम ही है)। दूसरी तरफ किसानों द्वारा उत्पादित गेहूं की केवल डेढ़ सौ ग्राम मात्रा केवल दो रूपये की है और सारा दिन आदमी को पूरी ऊर्जा प्रदान करती है। इतना सस्ता उत्पाद और इसे बेचने के लिए जमाबंदी व गिरदावरी की शर्त? साथ में फोटो पहचान पत्र? जिन किसानों ने जमीन ठेका या हिस्सा पर ले रखी है, उनकी तो हालत और भी बुरी है। संयुक्त परिवारों के चलते भूमि पुराने रिकॉडों में बुजुर्गो के नाम दर्ज है, उसमें भी परेशानी।
राजस्थान में गेहूं पर बोनस - राजस्थान सरकार ने किसानों को गेहूं पर बोनस के रूप में दो सौ करोड़ रूपये की व्यवस्था की थी। राजस्थान में पेस्टीसाइड पर 5 प्रतिशत वैट लगता है जबकि हरियाणा-पंजाब में पेस्टीसाईड पर वैट नहीं लगता। वैट से प्राप्त राशि दो सौ करोड़ से अधिक होती है फिर दौ सौ करोड़ रूपये बोनस के रूप में देने की घोषणा का क्या औचित्य रहा? किसानों को समय पर भुगतान भी नहीं हो पाया जिसके कारण नरमें की फसल के लिए उधार बीज लेना मजबूरी बन गया। उधार में 99 प्रतिशत दुकानदार नकली बीज ही देते है।
कृषि भूमि तो अंग्रेजों के जमाने से हड़पी जा रही है वर्तमान में भूमि हड़पना आम हो चुका है ।
कृषि विकास के नाम से योजनाएं चलाई जाती है जो सिर्फ घोटोलों की जनक। जबकि कृषि को सबसे पहले उद्योग का दर्जा मिले व विकास के लिए कोई योजना न चलाकर कानून बनाया जाना चाहिए। कानून से ही सभी सुविधाओं का लाभ किसानों को मिलेगा । योजनाएं तो घोटले व खाना पूर्ति का माध्यम बन कर रह गई है जिनका लाभ राजनैतिक पार्टियों के नेता व नजदीकी उठा रहे है। विज्ञापनों के माध्यम से पार्टी व खुद का प्रचार करना इनका प्रमुख उद्देश्य रह गया है। किसान अपनी हालात पर मजबूर है और मजबूरी का फायदा हर कोई उठाता है। सरकार और समाज के पास किसान की इन तमाम समस्याओं का हल है?