आजादी से पहले ब्रिटिश सरकार जिस तरह मनमाने ढंग से देश का और देश वासियों का दीवाला निकाल रही थी, उसी समय हमारे देश में बुद्धिमानों ने जनता की भावनाओं के उत्पीडऩ का तरीका खोज लिया था, और वो ही बुद्धिजीवी लोग आजादी के बाद सत्ता में आए, उन्ही सूत्रों, तरीकों के आधार पर अपनी निजी स्वायतता को मनमाना विस्तार और स्वरूप दिया। अत: आजादी के साथ भ्रष्टराचार को भी आजादी मिल गई।
राजा और रंक का भाव गहनतम हो गया, शोषण बढता चला गया। शोषण में काम के बदले दाम की रिवाज काठ की छुरी बन गई। स्वार्थ सिद्धि का विकास सत्ता के गलियारे से चलता हुआ आम जनता की देहरी पर आ टिका है।
सब अपने-अपने सुख तलाशने में लगे। सबसे पहले भोक्ता बनने का ही जुगाड़ कर रहे है। जब से चुनावों में साम, दाम, दण्ड भेद की नीति का प्रवेश हुआ उसी दिन से नीति आदर्श, ईमानदारी और विश्वास के साथ खिलवाड़ शुरु हो गया ।
उस समय कम लोग दोषी थे, आज लगभग लोग दोषी है, चुनाव में जिन लोगों ने मदद की वो दलाल भी बने, लेकिन वे लोग मालामाल भी बने यहां पर सीधा सादा कार्यकर्ता पिट गया, न वह दलाल बन सका और न मालामाल बन सका।
नेताओं के दरबार लगने लगे तो बढते ही गये।
भ्रष्टाचार की धारा का प्रवाह इतना तेज है कि इससे कोई भी नौनिहाल जवान बूढा अछूता नहीं है। इससे तो लाश भी अछूती नहीं है।
घूसखोरी का सूचकांक बच्चे के जन्म से शुरु हो जाता है जवानी बुढापे से होते हुए मृत्यु तक चला जाता है।
एक आम भारतीय नागरिक को बच्चे के जन्म-प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए कार्यालय के क्लर्क को घूस देनी पड़ती है। इजिनियरिंग और मेडिकल में दाखिले के लिए घूस देनी पड़ती है। छोटी से बड़ी नौकरी तक रिश्वत देनी आम बात है।
ड्राईविंग लाइसेंस बनवाने, नवीनीकरण करवाने, बिजली पानी, रेल आरक्षण पासपोर्ट, सिनेमा टिकट, बस टिकट आदि आम सुविधाओं के लिए भी घूस का प्रचलन है। स्वास्थ्य सेवाओं में डाक्टर से लेकर आम सुविधाओं के लिए भी घूस का प्रचलन है। स्वास्थ्य सेवाओं में डाक्टर से लेकर वार्डबाय नर्स और सफाई कर्मचारी तक मरीज को आर्थिक रुप से बेदम करने पर आमादा रहते है। एफ.आई.आर. दर्ज कराने थानों में फरियादी भी अपराधी बना दिया जाता है और उसकी जेब खंगाल ली जाती है, पता नहीं चलता।
व्यवस्था शुरु करनी है तो घूस देनी पड़ती है आयकर देने पर्यावरण जांच कराने आदि में भी घूसखोरी है - अखबार से जुड़े संवाददाता भी पार्टी शराब या सीधे घूस लेने के आरोपों के दायरे में आ चुके है।
जिन्दगी भर घूस देने के लिए मजबूर आदमी को मरने के बाद भी चैन नहीं मिलता उसके अंतिम संस्कार तक भी घूसखोरी का प्रचलन है।
अपनी खुशी के लिए किसी को किसी भी हद तक कष्ट देना जब लोगों की आदत बन जाए तो किसी के खुशहाल रहने का प्रश्र ही कहा रह जाता है। ऐसे लोगों को भ्रष्टाचार अनैतिक नहीं लगता उनके लिए तो भ्रष्टाचार सुविधा शुल्क के रुप में नैतिक होता है। कहने को तो वो लोग भी समाजिक प्राणी ही है। सेवक है, लेकिन उनका भी अपना परिवार है, बच्चे हैं, जिनके बड़े-बड़े सपने है, उन्हें पूरा करना उनका नैतिक कर्तव्य है अथवा नहीं? यही आड़ लेकर वे भ्रष्टाचार को नैतिक आवश्यकता का जामा पहना रहे है। सरकारी अद्र्धसरकारी कार्यालयों में पदस्थ लोगों के लिए ऊपरी आय उनकी कार्य ऊर्जा का रुप ले चुकी है। इस ऊर्जा के बगैर तो वे हिलडुल भी नहीं सकते। उनके मूंह से बोल निकलने इशारे करने के भी दाम लगते है। मूंह बोले और एक मुश्त नगद दाम लगते है। इस बात का ज्ञान आम जनता को भी है और जनता भी ऊर्जा अपने साथ लेकर ही अब कार्यालयों में जाने लगी है।
इस ऊर्जा की आवश्यकता राष्ट्र निर्माता शिक्षक को भी महसूस हुई अत: उसने भी ट्यूशन को अध्यापन काल का आवश्यक अंग बना दिया। यही कारण रहा कि आजादी के बाद आज तक बहुत से डाक्टर बने इंजीनियर बने, व्याख्याता बने, लेकिन राष्ट्रनिर्माता एक भी नहीं बना। हमारे देश के राजनैतिक दलों ने भारत के अन्नदाता किसान को भ्रष्टाचार की शिष्टता, वोट बैंक पक्का करने के लिए कर्जमाफ कर कर के दिखाई है। इसी कारण आज किसान स्वर भी लालच अथवा प्राण भय के ख्वाब में बेसुरे होते जा रहे हैं।
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि किसी देश की अस्मिता का निर्धारण उसमें रहने वाले लोगों के आचार, विचार, व्यवहार एवमï समानता व न्याय के मानदण्डों से और सत्ताशासकों की चारित्रिक श्रेष्ठताओं के आधार पर होता है।
लेकिन जब चरित्र भष्ट्राचार के बीज बो रहा हो तो राष्ट्र निर्माताओं की फसल का सपना देखना वहम ही है।
नजर मारिये -
1. आज कितने माँ-बाप अपने बच्चों को सत्य, निष्ठा, सेवा और त्याग का पाठ पढा रहे है।
2. कितने माँ-बाप अपने बच्चों को समाजोयोगी कार्य करने का पाठ पढा रहे है।
3. कितने माँ-बाप अपने बच्चों को महापुरुषों के जीवन की सीख दे रहे है?
लोग कहीं न कहीं सत्य का मार्ग भूल गये हे भारतवादी राष्ट्रवादियों की तलाश में यह देश सिसक रहा है।
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